क्या धर्म और अध्यात्म एक हैं ? धर्म बड़ा है या अध्यात्म ?
धर्म का अर्थ होता है कर्त्तव्य (duty/ responsibility) ।
कर्त्तव्य भूमिका से निर्धारित होता है । उदाहरण से समझते हैं । एक व्यक्ति एक ही समय में किसी का पुत्र भी होता है, स्वयं किसी का पिता भी होता है, दफ्तर में कर्मचारी भी होता है, पति भी होता है, यदि उसने अपना घर किराए पर दे रखा है तो वह मकान मालिक भी होता है, इत्यादि । और यदि उस व्यक्ति की रुचि अध्यात्म में है तो बहुत जल्द ही है वह आध्यात्मिक भी बन जायेगा ।
भूमिका के साथ कर्त्तव्य बदलता है । एक व्यक्ति जब अपने पिता के साथ में है तब वह एक पुत्र है तब उसका कर्त्तव्य अलग होगा । जब वही व्यक्ति अपने पुत्र या पुत्री के साथ है तब उसका कर्त्तव्य अलग होगा । वही व्यक्ति जब अपनी पत्नी के साथ होगा तब उसका कर्त्तव्य बिलकुल भिन्न होगा और जब वही व्यक्ति अपने दफ्तर में होगा तब उसका कर्त्तव्य अलग होगा । और यदि वह साथ में मकान मालिक भी है तो अपने किराएदार के प्रति उसका कर्त्तव्य बिलकुल भिन्न होगा ।
धर्म भूमिका पर निर्भर होता है । एक पिता का कर्त्तव्य है कि वह अपने बच्चों के सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करे । एक पुत्र या पुत्री का धर्म है कि वे अपने माता- पिता की आज्ञा का पालन करें । एक शिष्य का धर्म है कि वह अपने शिक्षक का अपमान ना करे और उनकी सभी बातों को ध्यान से सुने । यदि शिष्य अपने शिक्षक की किसी बात से सहमत नहीं भी है तो वह आदरपूर्वक अपने शिक्षक के सामने अपने प्रश्न को रखे । एक मकान मालिक का कर्त्तव्य है कि वह अपने किराएदार को सभी सुविधाएं उपलब्ध कराये जो उसने कमरा किराए पर चढ़ाने से पहले कहा था । और किरायेदार का भी कर्त्तव्य है कि जब तक वह घर में रह रहा है उसे अपना खुद का घर समझ कर वहां साफ़ – सफाई रखे और समय पर मकान मालिक को किराया देते रहे।
श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में कौरवों के साथ छल किया था । क्यूंकि धर्म पांडवों के पक्ष में था । समझ में नहीं आया । है ना ?
चलिए समझने के प्रयास करते हैं । कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध में धर्म की जीत तभी होती जब पांडव जीतते । क्यूंकि अधर्म पांडवों के साथ हुआ था । यदि कौरव युद्ध जीत जाते तो जनता उनके राज में सुख नहीं भोगती । एक अधर्मी राजा कभी अपनी प्रजा को सुखी नहीं रख सकता । जो कौरव अपने भाइयों का अधिकार हड़प गए वे जनता को क्या ही न्याय दिलाते ?
अब थोड़ा आगे बढ़ते हैं । अध्यात्म से पहले धर्म आता है । पहले धर्म फिर अध्यात्म । धार्मिक हुए बिना कोई व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं बन सकता । क्यूंकि जब तक हमारे जीवन में धर्म / कर्त्तव्य नहीं आएगा तब तक जीवन में संतुष्टि नहीं आएगी और जब तक आप संतुष्टि का अनुभव नहीं करेंगे तब तक आपके जीवन में आनंद नहीं उतरेगा और जब तक जीवन जीने में आनंद नहीं आएगा तब तक मन शांत नहीं होगा और जब तक मन शांत नहीं होगा तब तक ध्यान (meditation) नहीं लग पायेगा और जब तक ध्यान नहीं लगेगा तब तक हम आध्यात्मिक नहीं बनेंगे ।
अध्यात्म का अर्थ होता है स्वयं को केंद्र से जोड़ना । मनुष्य का केंद्र है मणिपुर चक्र । मणिपुर चक्र का ध्यान लगाने से मनुष्य स्वयं को पाशविक प्रवृत्तियों से उठा सकता है ।
पाशविक प्रवृत्ति यानी मनुष्य होते हुए भी पशुओं की तरह ही जीवन व्यतीत करना । जैसे एक पशु के जीवन में चार कार्य ही होते हैं । आहार (food), निद्रा (sleep), भय (fear), मैथुन (sex) ।
एक मनुष्य भी जब तक अपने केंद्र से नहीं जुड़ता तब तक उसका जीवन भी इन्हीं चार कार्यों में बीतता है । मणिपुर चक्र का ध्यान कैसे करना है ?
यह जानने के लिए आप नीचे दिए गए link पर click करके पढ़ सकते हैं ।
हनुमान जी भी मणिपुर चक्र की साधना करते थे । राम नाम का जप मणिपुर चक्र को जागृत करता है । जिसका मणिपुर चक्र जागृत हो जाता है वह जीवन में सुख को उपलब्ध होता है क्यूंकि मणिपुर चक्र के जागृत होते ही अध्यात्म घटित हो जाता है और प्रभु स्वयं आपको ह्रदय में दर्शन देंगे ।
अध्यात्म का अर्थ यह नहीं होता कि हम संसार को माया मानकर शांत हो कर बैठ जाते हैं और कुछ भी कहीं गलत हो रहा हो तो यह बोल कर अपनी कमज़ोरी को छिपा लेते हैं कि सब मोह – माया है । अध्यात्म का अर्थ हनुमान जी के जीवन से सीखिए । वे आध्यात्मिक थे तो क्या उन्होंने रावण को मारने में राम जी की सहायता नहीं करी ?
अपनी आत्मा का अध्ययन ही अध्यात्म है ।
कबीर दस जी ने बहुत सुन्दर दोहा कहा है
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोई
जो दिल खोजा अपना मुझसे बुरा ना कोई
यह दोहा पूरे अध्यात्म को समझा देता है । पहले स्वयं में कमियां ढूंढनी हैं फिर दूसरे में । कितनी सुन्दर बात है । दुसरे में अगर किसी कमी को निकाल रहे तो वही पहले अपने अंदर भी झांककर देखना है कि हमारे अंदर भी तो वही कमी नहीं है । यदि है तो पहले अपने अंदर से उस कमी को दूर करो, और जब हो जाए तब उस कमी को सामने वाले के अंदर यदि है तो उसे बताओ ।
श्री राम, श्री हनुमान, सीता माँ, भरत जी, श्री कृष्ण जी यह सब धार्मिक एवं आध्यात्मिक थे ।
राम जी ने पुत्र धर्म का पालन करते हुए पिता की आज्ञा से 14 वर्ष का वनवास स्वीकार किया । वन में रहना picnic मनाने जैसा नहीं होता । केवल एक दिन अपने घर के सामने वाले पार्क में पूरे 24 घंटे रहिए ।
पूरे 24 घंटे वहीँ पार्क में समय बिताइए, वहीँ खाना खाइये और वहीँ रात में विश्राम कीजिये । कुछ तो अनुभव हो ही जाएगा कि वन में रहना क्या होता है ?
सीता जी पत्नी धर्म का पालन करते हुए राम जी के साथ वन में गयीं । लक्ष्मण जी, हनुमान जी, कृष्ण जी, सबने अपने धर्म का पालन किया ।
आप चाहे अध्यात्म के पथ पर अग्रसर हों या ना हों परन्तु धार्मिक हुए बिना जीवन में आनंदित नहीं हो पाएंगे । एक बार फिर से पुनरावृत्ति करूँगा ।
अध्यात्म से पहले धर्म आता है । पहले धर्म फिर अध्यात्म । धार्मिक हुए बिना कोई व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं बन सकता । क्यूंकि जब तक हमारे जीवन में धर्म / कर्त्तव्य नहीं आएगा तब तक जीवन में संतुष्टि नहीं आएगी और जब तक आप संतुष्टि का अनुभव नहीं करेंगे तब तक आपके जीवन में आनंद नहीं उतरेगा और जब तक जीवन जीने में आनंद नहीं आएगा तब तक मन शांत नहीं होगा और जब तक मन शांत नहीं होगा तब तक ध्यान (meditation) नहीं लग पायेगा और जब तक ध्यान नहीं लगेगा तब तक हम आध्यात्मिक नहीं बनेंगे ।
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि हम सब आध्यात्मिक बनें या नहीं धार्मिक तो बनना ही है । पहला लक्ष्य तो धार्मिक बनना है । क्यूंकि धार्मिकता ही पूरे संसार को दुखों से मुक्त कर सकती है । धार्मिक होने के बाद अध्यात्म के लिए कुछ करना नहीं है । अध्यात्म स्वयं घटित हो जाएगा ।
आपने यहाँ तक पढ़ा । आपका धन्यवाद ।