Hanuman Chalisa Ka Poora Arth | हनुमान चालीसा अर्थ सहित |

AmanMotivational2 years ago4 Views

हनुमान चालीसा अर्थ सहित । Hanuman Chalisa with Meaning in Hindi

आपने Google पर कई जगह हनुमान चालीसा अर्थ सहित पढ़ी होगी परन्तु मन को तृप्ति नहीं मिली होगी । ऐसा अवश्य लगा होगा कि कहीं कुछ तो missing है । शायद आज जितने विस्तार से यहाँ हनुमान चालीसा और उसकी पंक्तियों के अर्थ पर बात होगी उतनी अभी तक नहीं हुई होगी ।

हनुमान चालीसा गोस्वामी तुलसीदास जी ने आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व लिखी थी ।

हम सबके मन में यह प्रश्न स्वाभाविक ही उठ जाता है जब हम हनुमान चालीसा शब्द को सुनते हैं कि चालीसा का क्या अर्थ है ? हनुमान जी के लिए लिखी गयी इस स्तुति का नाम तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा ही क्यों रखा ?

उत्तर बहुत ही सरल है । इस स्तुति में 40 पंक्तियाँ (lines) हैं । मैं नीचे जब हर एक पंक्ति का अर्थ बताऊंगा तो हर एक पंक्ति के साथ पंक्ति संख्या भी लिखूंगा और आप देखना आखिरी पंक्ति की संख्या 40 ही होगी ।

अर्थ को शुरू करने से पहले मैं कुछ और शब्दों पर आपका ध्यान लाना चाहता हूँ जहाँ शायद आपका ध्यान चला भी गया हो ।

एक शब्द है गोस्वामी और दूसरा शब्द है स्तुति ।

गोस्वामी शब्द का अर्थ होता है जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने वश (control) में कर लिया हो । इसमें सबसे प्रमुख इन्द्रिय है वासना, स्त्री के लिए आकर्षण ।

स्तुति शब्द का अर्थ होता है ध्यान लगाना । जैसे यदि आप हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे हैं तो स्वतः ही आपका ध्यान हनुमान जी पर चला जाएगा जब तक आप पाठ कर रहे हैं तब तक । यदि बिना अर्थ के बस पंक्तियों को पढ़ रहे हैं तो ऐसा नहीं होगा । परन्तु यदि सभी पंक्तियों का अर्थ आप जानते हैं और हनुमान चालीसा की पंक्तियाँ पढ़ते समय अर्थ भी साथ-साथ आपके मस्तिष्क (brain) में चल रहा हो तो जिसे अंग्रेजी में मैडिटेशन कहते हैं वो घटित हो जाएगा आपके भीतर ।

हनुमान चालीसा के अर्थ के साथ पाठ करने से आप यह अनुभव करेंगे की सच में हनुमान जी आपके साथ हैं बस अपने कर्म अच्छे रखना । और ध्यान रखना कि कर्म मन, वाणी और शरीर तीनों से होते हैं । तो मन में भी किसी प्रकार की कोई गन्दगी का प्रवेश मत होने देना जैसे किसी स्त्री को लेकर गंदे विचार या किसी को धोखा देने का विचार या फिर वाणी से कोई भी गाली या अपशब्द का प्रयोग और ना ही शरीर से कोई गलत कर्म करना जैसे हस्तमैथुन या किसी पर अनावश्यक शारीरिक बल का प्रयोग, इत्यादि । 

अब हम हनुमान चालीसा का अर्थ आरम्भ करेंगे पर उससे पहले कुछ आवश्यक बिंदुओं पर ध्यान लगा लेते हैं ।

हनु शब्द का एक अर्थ होता है ठुड्डी और दूसरा अर्थ होता है हनन कर लेना। मान शब्द का अर्थ होता है सम्मान या यश। हनुमान जी पर दोनों ही अर्थ सटीक बैठते हैं।

सबसे पहले बात करते हैं की हनुमान जी का नाम हनुमान कैसे पड़ा।

हनुमान जी की ठुड्डी यानी जबड़ा थोड़ा विकृत था इसलिए उनको हनुमान कहा जाता है। ठुड्डी विकृत होने के बाद भी हनुमान जी सुन्दर ही दिखते थे। विकृत ठुड्डी उनकी सुंदरता को और निखारती ही थी जिस वजह से हनु शब्द के आगे मान जोड़ दिया गया।

हनुमान जी में अतुलित (unmatched) बल, बुद्धि और विद्या थी पर फिर भी उनके अंदर अहंकार नहीं था ।

इस प्रकार हनुमान जी का नाम हनुमान इसीलिए भी पड़ा क्यूंकि उन्होंने अपने अहंकार का हनन कर लिया था यानी बल, बुद्धि और विद्या होने के बाद भी हनुमान जी में 1 प्रतिशत भी घमंड नहीं था। ये कोई साधारण बात नहीं है। जिसमें शरीर में बल भी हो , बुद्धि भी तेज़ हो और जिसके पास किसी भी कार्य को करने की विद्या भी हो यानी तीनों सर्वोत्तम गुण एक ही मनुष्य में हो तो क्या ऐसा हो सकता है की उस मनुष्य में अकड़ ना हो?

और जो अपने अहंकार को समाप्त कर देगा उसका समाज में मान तो होगा ही। अब यह मत बोलना की वो भगवान थे इसलिए उनके अंदर अहंकार नहीं था।

सच तो यह है की उन्होंने अपने भीतर अहंकार को कभी आने नहीं दिया इसीलिए वो भगवान कहलाये। भारतीय संस्कृति में भगवान एक पद है ना की परमात्मा का दूसरा नाम। जैसे एक व्यक्ति मैनेजर से प्रमोट होकर डायरेक्टर बना दिया जाता है, उसकी योग्यता को देखते हुए, ठीक उसी प्रकार जब मनुष्य अपने भीतर से 5 कलेश और 6 विकार निकाल देता है वो भगवान कहलाता है।

चलिए अब हनुमान चालीसा का अर्थ शुरू करते हैं।

॥ दोहा॥

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥

सम्माननीय गुरु के चरण की धूल जो कमल के समान है, उस धूल से मैं अपना मन जो शीशे के समान है उसको शुद्ध करता हूँ। मैं वर्णन करता हूँ रघु कुल के श्री राम का जिनका यश अत्यंत शुद्ध है और चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का देने वाला है।

अब प्रश्न ये उठता है कि गुरु के चरण की धूल से ही मन का शीशा साफ़ कैसे होगा ? धूल से तो दर्पण गन्दा ही होना चाहिए ?

पहले के समय में या अब भी गाँव में जो लोग शीशा बनाने आते हैं, उनके पास एक विशेष प्रकार की धूल होती है जो वो जैसे ही शीशे पर रगड़ते हैं , शीशा और साफ़ हो जाता है।

अब दूसरा प्रश्न यह उठता है कि मन की दर्पण से ही तुलना क्यों की गई ?

क्यूंकि जिस प्रकार दर्पण यदि गन्दा हो तो उसमें कुछ भी साफ़ नहीं दिखता उसी प्रकार किसी व्यक्ति का मन यदि दूषित है तो उस व्यक्ति में कभी ज्ञान उतर नहीं सकता।

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ॥

मेरी बुद्धि कमज़ोर है और इसी अल्प बुद्धि से यानी अपनी थोड़ी सी बुद्धि से मैं हनुमान जी आपका स्मरण करता हूँ। मुझे बल, बुद्धि और विद्या दीजिये और मेरे सभी कलेशों को और विकारों को दूर कीजिये।

शास्त्रों में 5 प्रकार के कलेश और 6 प्रकार के विकार बताए गए हैं। नीचे दिए हुए link पर click करके आप कलेश और विकार के बारे में विस्तार से जान सकते हैं ।

हनुमान चालीसा में वर्णित कलेश और विकार क्या हैं ?

पंक्ति 1 :

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर । जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥

अर्थ : हनुमान जी की जय हो जो ज्ञान और गुणों के सागर हैं। कपियों के राजा तीनों लोक ( पाताल लोक, धरती लोक और आकाश लोक ) में आपकी जय है, सम्मान है।

पंक्ति 2 :

राम दूत अतुलित बल धामा । अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ॥

अर्थ : श्री राम के दूत आप बल के धाम हैं यानी आपके पास अतुलित (जिसको तौल नहीं सकते ) बल है। आपकी माता का नाम अंजनि और पिता का नाम पवन है।

पंक्ति 3 :

महाबीर बिक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ॥

अर्थ : हे हनुमान जी ! आप वीर नहीं महावीर हैं, विक्रम हैं यानी आपसे युद्ध में जीता नहीं जा सकता और आप का अंग वज्र (कठोर) है। जिसकी बुद्धि दूषित है, जिसकी बुद्धि केवल गलत कार्यों में ही लगी रहती है, यदि वह आपका निरंतर स्मरण करे तो उसकी बुद्धि श्रेष्ठ होती है और जिनकी बुद्धि अच्छे कार्यों में लगी हुई है उनके संग तो आप हमेशा रहते ही हैं।

पंक्ति 4 :

कंचन बरन बिराज सुबेसा । कानन कुण्डल कुँचित केसा ॥

अर्थ :आपके शरीर का रंग स्वर्ण के भाँती है और वस्त्र सुन्दर हैं। कानों में कुण्डल है और केश यानी बाल घुंगराले हैं।

अब यहाँ हनुमान जी हमें यह सन्देश दे रहे हैं कि हमें अपने शरीर को साफ़ रखना चाहिए और वस्त्र भी साफ़ ही पहनने चाहिए।

पंक्ति 5 :

हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजै । काँधे मूँज जनेउ साजै ॥

अर्थ : आपके एक हाथ में गदा है और एक हाथ में विजय ध्वज है। आपके कंधे पर मूँज ( एक प्रकार की घास ) का जनेऊ है।

पंक्ति 6 :

शंकर सुवन केसरी नंदन । तेज प्रताप महा जगवंदन ॥

अर्थ : आप शंकर के अवतार हैं और केसरी के औरस पुत्र हैं। आपका तेज और आपकी महिमा का वंदन सारा जग करता है।

पंक्ति 7 :

बिद्यावान गुनी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ॥

अर्थ : आप विद्वान हो, गुणी हो और चतुर भी हो। आप राम का कार्य करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

अब यहाँ थोड़ा रुकते हैं और गहराई से विचार करते हैं राम के कार्य पर। राम का कार्य यानी अच्छे कार्य, नेक काम, हितकारी काम। तो जो मनुष्य निरंतर अच्छे कार्यों में लगा हुआ है वो सब कार्य राम के कार्य हैं और उसे पूरा कराने का सारा दायित्व हनुमान जी का है। आप बस अच्छे कार्य करिये – किसी का बुरा मत सोचिये , किसी की चुगली मत कीजिये , विश्वासघात मत करिये , पूरी ईमानदार से परिश्रम कीजिये । हनुमान जी आपका कार्य पूरा करवा देंगे।

पंक्ति 8 :

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ॥

अर्थ : हे हनुमान जी ! आपको श्री राम का चरित्र सुनने में आनंद आता है। आपके ह्रदय में राम, लक्ष्मण और सीता माँ विराजते हैं।

पंक्ति 9 :

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा । बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥

अर्थ : आपने सीता जी को अपना छोटा रूप दिखाया था। अपना विकराल रूप दिखाकर आपने लंका को जलाया था।

थोड़ा समझते हैं इन पंक्तियों को।

वाल्मीकि रामायण में प्रसंग आता है कि हनुमान जी बिल्ली का रूप धारण करके लंका में घुसे थे। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि उन्होंने बिल्ली का रूप बनाया था न कि बिल्ली का शरीर धारण कर लिया था। हज़ारों साल पहले मनुष्यों की औसत लम्बाई 8 से 10 फ़ीट होती थी पर आज साढ़े पांच फ़ीट रह गयी है। उसी प्रकार उस समय जानवरों की लम्बाई आज के जानवरों की लम्बाई से बहुत ज़्यादा थी। हनुमान जी ने बिल्ली की तरह अपनी चाल बनाई और लंका में प्रवेश कर गए।

दूसरी बात सूक्ष्म रूप का अर्थ है कि हनुमान जी जब सीता जी से मिले तो झुककर मिले , वे घुटनों पर बैठे हुए थे और उनके शरीर की दोनों बाजुएं सीने से चिपकी हुई थी। उनमें उस समय इस बात का बिलकुल भी अहंकार नहीं था कि उन्होंने शत्रु के देश में अकेले सीता जी को खोज लिया।

और जब लंका को श्री राम जी के शक्ति का प्रदर्शन देने का समय आया तब उन्होंने अपना सीना चौड़ा किया, कंधे फैलाये और गर्जना की।

पंक्ति 10 :

भीम रूप धरि असुर सँहारे । रामचन्द्र के काज सँवारे ॥

अर्थ : आपने विशालकाय रूप धरकर असुरों का विनाश किया। रामचंद्र जी के सभी कार्यों को आपने पूर्ण किया।

पंक्ति 11 :

लाय सजीवन लखन जियाए । श्री रघुबीर हरषि उर लाये ॥

अर्थ : आप संजीवनी बूटी लाये थे और लक्ष्मण जी के प्राण बचाये थे। तब श्री राम जी के होंठों  पर मुस्कान आयी थी।

पंक्ति 12 :

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥

अर्थ : श्री राम जी ने आपकी बहुत प्रशंसा की। और आपको भारत के समान प्रिय भाई माना।

अब यहाँ एक प्रश्न उठता है की श्री राम को क्या लक्ष्मण जी प्रिय नहीं है ? राम जी के साथ वनवास लक्ष्मण जी गए थे । वनवास केवल श्री राम जी को हुआ था, लक्ष्मण जी को नहीं ।

इसका उत्तर भी बहुत सरल और आँखों में अश्रुओं को लाने वाला है, यदि आप अनुभव कर पाए तो ।

राम जी को लक्ष्मण जी, भरत जी, सीता जी, हनुमान जी बहुत प्रेम करते थे । परन्तु वनवास में राम जी के साथ रहने का अवसर इन सबको मिला केवल एक को छोड़कर । और वे हैं भरत जी । भरत जी राम जी की चरण पादुका के साथ ही रहे पूरे 14 वर्ष । किस लिए ? राम जी की आज्ञा पर ।

और राम जी ने भरत को इसीलिए अपने से दूर रखा क्यूंकि यदि भरत जी भी राम जी के साथ 14 वर्ष वन में रहते तो अयोध्या को शत्रुओं के हाथ में जाते देर नहीं लगती । और राम जी स्वयं कहते हैं

“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”

अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है ।

क्यूंकि भरत जी परमात्मा की आज्ञा से परमात्मा से ही दूर रहे और परमात्मा के दिए हुए निर्देश से ही आगे का कार्य किया इसीलिए परमात्मा को भरत जी अधिक प्रिय हैं ।

एक पल को विचार करते हैं कि यदि भरत जी के स्थान पर लक्ष्मण जी होते तो वे बिलकुल भी राम जी की बात ना मानते और राम जी से कहते कि यदि अयोध्या इन 14 वर्षों में शत्रुओं के हाथ लग भी जाती है तो वनवास समाप्त हो जाने के बाद फिर से अयोध्या शत्रुओं से जीत लेंगे । क्यूंकि लक्ष्मण जी को केवल राम जी का साथ चाहिए, वे उसके आगे नहीं विचरते हैं और ना ही विचारना चाहते हैं ।

परन्तु भरत जी जानते थे कि प्रभु श्री राम की बात यदि वे नहीं मानेंगे तो 14 वर्ष समाप्त होने के बाद भी राम जी का कष्ट कम नहीं होगा क्यूंकि फिर शत्रुओं से अयोध्या जीतने के लिए राम जी को दोबारा से कष्ट उठाना पड़ेगा । भरत जी खुद को दुःख दे सकते हैं परन्तु राम जी के कष्ट को बढ़ा नहीं सकते हैं । राम जी यह बात जानते थे ।

मेरे विचार में यह कारण हो सकता है कि भरत जी राम जो अधिक प्रिय हैं ।

अब तो हनुमान जी भी परमात्मा को अधिक प्रिय हो गए हैं ।

हम भी परमात्मा को प्रिय हो जाएंगे यदि हम हनुमान चालीसा की सभी पंक्तियों का अर्थ अच्छे से समझेंगे और उसी अनुसार कार्य करेंगे । यह हनुमान चालीसा सूत्रों (formulas) से भरी हुई है । इसकी हर पंक्ति में जीवन को कैसे जीना है, इसका सूत्र है । जिस देश में हनुमान चालीसा है वहां यदि लोग अवसाद (depression) की  गोलियां खाएंगे, आत्महत्या (suicide) करेंगे तो इसका सीधा सा मतलब यही है कि हनुमान चालीसा को अभी हमने सही से समझा नहीं ।

पंक्ति 13 :

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं । अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥

अर्थ: श्री राम जी कह रहे हैं हनुमान जी से कि मेरा पूरा शरीर तुम्हारे गुण गा रहा है । ऐसा कहते ही सियापति श्री राम जी ने हनुमान जी को गले से लगा लिया ।

पंक्ति 14 :

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ॥

अर्थ: ऋषि सनक इत्यादि ऋषि, ब्रह्मा जी, मुनि जन, नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी

पंक्ति 15 :

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥

अर्थ: यमराज, कुबेर, दिग्पाल ( सभी दिशाओं के रक्षक ) भी आपके गुणों नहीं गा सकते । तो कवि ( तुलसीदास ) तो क्या ही गा पाएंगे ।

पंक्ति 16 :

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीह्ना । राम मिलाय राज पद दीह्ना ॥

अर्थ: सुग्रीव जी को राम जी से मिलाने वाले हनुमान जी ही थे । राम जी से मिलते ही सुग्रीव और राम जी कि मित्रता हुई और बाली का अंत करके राम जी ने सुग्रीव को राजा बनाया ।

पंक्ति 17 :

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना । लंकेश्वर भए सब जग जाना ॥

अर्थ : जब हनुमान जी को बंधन में बांधकर मेघनाद रावण के समक्ष लाया तब हनुमान जी ने बहुत सी हितकर बातें रावण को समझायीं । तब उस सभा में विभीषण जी भी थे जिन्होंने पूरे ध्यान से हनुमान जी की बातें सुनीं और बाद में जब रावण ने अपमान करके विभीषण जी को लंका से निकाला था तब विभीषण जी श्री राम के शरण में ही गए थे । राम जी की शरण में आने के बाद रावण का अंत करके प्रभु श्री राम ने विभीषण जी को ही लंका का राजा बनाया था ।

पंक्ति 18 :

जुग सहस्त्र जोजन पर भानु । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥

अर्थ: सूर्य जो हज़ारों योजन दूर है उसे आपने मीठा फल समझकर निगल लिया था ।

अब यहाँ थोड़ा विचार करने की आवश्यकता है । क्यूंकि तुलसीदास जी कवि हैं और कवि कुछ पंक्ति दार्शनिक सन्दर्भ में भी लिखते हैं । जिनका अर्थ दर्शन से जुड़ा हुआ होता है, स्पष्ट अर्थ नहीं होता ।

यहाँ सूर्य अर्थात ज्ञान है और ज्ञान को अपने भीतर उतारना सूर्य को निगलने जितना ही कठिन है । कठिन तपस्या के बाद ही ज्ञान भीतर उतरता है । रटना सरल होता है परन्तु समझना कठिन होता है । हनुमान जी ने कठिन से कठिन विद्या को एक मीठे फल की तरह अपने मन, बुद्धि, चित्त में उतार लिया था ।

बाकी रह गयी सूर्य को निगलने वाली बात तो वह भी हनुमान जी के लिए कोई कठिन कार्य नहीं है । क्यूंकि जिनके साथ स्वयं राम हैं अर्थात परमात्मा हैं वे असंभव से असंभव कार्य भी कर सकते हैं ।

पंक्ति 19 :

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥

अर्थ: हे हनुमान जी ! आप प्रभु श्री राम की अंगूठी अपने मुख में रखकर समुद्र को सरलता से पार कर गए थे ।

पंक्ति 20 :

दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥

अर्थ: जगत में जितने भी कठिन से कठिन कार्य हैं सब आपके आशीर्वाद से पूर्ण हो जाते हैं ।

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि संसार में कोई भी कार्य कठिन या सरल नहीं होता । कार्य सारे ही सरल होते हैं । बस बल, बुद्धि और विद्या चाहिए किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए । और यह तीनों वरदान हनुमान जी अपने सभी भक्तों को देते हैं । बस करना यह है कि हनुमान जी की तरह अपना पूरा समय ज्ञान अर्जन में, बल को बढ़ाने में ( योग, प्राणायाम, व्यायाम आदि करके ) और विद्या (skills) को बढ़ाने में लगाना है । फिर देखिये कैसे हनुमान जी आप पर कृपा की वर्षा करेंगे ।

पंक्ति 21 :

राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥

अर्थ: राम ( परमात्मा ) को पाने की कुंजी आपके पास है । आपकी आज्ञा के बिना राम जी से मिलना सुलभ नहीं है ।

इन पंक्तियों में ध्यान देने वाली बात यह है कि पहले हनुमान जी को प्रसन्न करो तब हनुमान जी स्वयं आपको परमात्मा के दर्शन करा देंगे । अब प्रश्न यह उठता है कि हनुमान जी प्रसन्न होंगे कैसे ?

हनुमान जी को प्रसन्न करना बहुत सरल है । बहुत सरल विधि से हनुमान जी से प्रसन्न हो जाएंगे । आइये जानते हैं वह विधि कौन सी है ?

सबसे पहले सुबह उठकर हमें धरती माँ को प्रणाम करना है, फिर योग, प्राणायाम, व्यायाम और स्नान आदि करके हमें माता और पिता के चरण स्पर्श करने हैं । इसके बाद थोड़ा समय निकालकर हनुमान चालीसा का जप अर्थ को ध्यान में रखते हुए करना है और फिर आँखों को बंद करके राम नाम का जप करना है । आँखों से अश्रु की धारा बहने लग जायेगी । यह आनंद के अश्रु होंगे । इसका अनुभव तो मैं बता नहीं सकता क्यूंकि यह अनुभव शब्दों में नहीं कह सकते । आपको स्वयं अनुभव करना होगा । अब इसके बाद  अपनी दिनचर्या आरम्भ करनी है ।

यही सरल सी विधि है हनुमान जी को प्रसन्न करने की ।

पंक्ति 22 :

सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रक्षक काहू को डरना ॥

अर्थ: हे हनुमान जी ! जो आपकी शरण में आ गया उसको तो फिर संसार के सारे सुख घेर ही लेंगे और भय तो उसको लगेगा ही नहीं क्यूंकि तब स्वयं आप उसकी रक्षा कर रहे होंगे ।

पंक्ति 23 :

आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हाँक तै काँपै ॥

अर्थ: आपके दर्शन की अभिलाषा तो है मुझे पर आपका तेज, आपकी चमक मैं नहीं झेल पाऊंगा । आप हलकी सी भी गर्जना कर दें तो तीनों लोक में हाहाकार मच जाता है ।

पंक्ति 24 :

भूत पिशाच निकट नहिं आवै । महावीर जब नाम सुनावै ॥

अर्थ: भूत, आत्माएँ उसके पास भी नहीं आती जो आपका नाम स्मरण में रखता है ।

पंक्ति 25 :

नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥

अर्थ: हे वीर हनुमान ! जो हर समय आपके नाम का जप कर रहा है उसके समस्त रोग और पीड़ा का अंत हो जाता है ।

अब यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि हनुमान जी का नाम भी एक औषधि ही है । यहाँ यह अर्थ नहीं लेना है कि शरीर में कोई भी रोग हो या पीड़ा हो तो अन्य औषधियां ना लेकर हनुमान जी के नाम की औषधि ही लेनी है । जो भी औषधि आप ले रहे हैं अपने रोग के लिए उसके साथ हनुमान जी का नाम भी स्मरण में रखना है । 

पंक्ति 26 :

संकट तै हनुमान छुडावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥

अर्थ : जो भी हनुमान जी का स्मरण करता है और साथ में परिश्रम भी करता है, तो उसके जीवन से सभी प्रकार के संकटों का अंत हो जाता है ।

पंक्ति 27 :

सब पर राम तपस्वी राजा । तिनके काज सकल तुम साजा ॥

अर्थ: सभी राजाओं में श्री राम सर्वश्रेष्ठ हैं क्यूंकि वे तपस्वी राजा हैं । उनके सभी कार्यों को आप सदैव सफल बनाने में प्रयासरत रहते हैं ।

श्री राम जी को तपस्वी इसलिए कहा गया है क्यूंकि वे  राजा होने के बाद भी भोग और विलास में नहीं डूबे । उनके समय में एक राजा बहुत विवाह करता था परन्तु राम जी ने एक पत्नी व्रत ले रखा था ।

पंक्ति 28 :

और मनोरथ जो कोई लावै । सोई अमित जीवन फल पावै ॥

अर्थ : जो मन को रथ के भाँती जानकार उसको साध लेता है वही जीवन भर अनगिनत फल ( सुख ) पाता है ।

मन सधेगा तभी जब हनुमान जी का ध्यान लगाएगा ।

पंक्ति 29 :

चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्ध जगत उजियारा ॥

अर्थ: हे हनुमान जी ! आपका नाम चारों युग में रहेगा और जब तक यह जगत रहेगा तब तक आपके नाम से यह जगत जगमग रहेगा ।

पंक्ति 30 :

साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकंदन राम दुलारे ॥

अर्थ: सभी साधु और संतों के आप रखवाले हैं और सभी असुरों के संहारक और राम जी के दुलारे हैं ।

पंक्ति 31 :

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ।अस बर दीन जानकी माता ॥

अर्थ: संसार में आठ प्रकार की सिद्धियां हैं और नौ प्रकार की निधियां हैं । सभी सिद्धियां और निधियां आपके पास हैं क्यूंकि माता सीता ने आपको यह सब वरदान में दिया था । जो आपका ध्यान लगा कर परिश्रम करता है उसे भी जीवन में वह सब मिलता है जो वह पाना चाहता है ।

आठ सिद्धि और नौ निधि, मैं यहाँ नहीं बताऊंगा क्यूंकि वह सब जानकार हमें कुछ मिलेगा नहीं । हमें केवल हनुमान जी का स्मरण और अपने कर्म पर ध्यान देना है, फिर जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती होते देर नहीं लगेगी ।

पंक्ति 32 :

राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ॥

अर्थ: राम नाम का रसायन (chemical) आपके पास है । आप सदैव श्री राम के दास बने रहना चाहते हैं ।

यह पंक्ति बहुत ही महत्वपूर्ण है । इसे समझना बहुत ही आवश्यक है । यहाँ हमें हनुमान जी सिखा रहे हैं कि जीवन में तुम कितनी भी सफलता पा जाना परन्तु भीतर से सदैव खुद को परमात्मा का दास ही मानना और जानना । इससे कभी अहंकार हमारी बुद्धि पर हावी नहीं हो पायेगा और हम परमात्मा का ध्यान लगते हुए अपने जीवन में भी और जो हमसे जुड़े हैं उनके जीवन में भी खुशियां जोड़ पाएंगे । 

पंक्ति 33 :

तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ॥

अर्थ: हे हनुमान जी आपको स्मरण में रखने से आप हमें राम ( परमात्मा ) से मिला देते हैं । जन्मों – जन्मों के दुःख आपके ध्यान मात्र से समाप्त हो जाते हैं ।

पंक्ति 34 :

अंतकाल रघुवरपुर जाई । जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥

अर्थ: हे हनुमान जी ! मैं अपने अंत काल में राम जी के धाम में जाऊं और अगला जन्म कभी भी लूँ तो राम का दास ( परमात्मा का भक्त ) ही कहलाऊँ ।

पंक्ति 35 :

और देवता चित्त ना धरई । हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥

अर्थ: किसी भी और देवता का स्मरण करने कि आवश्यकता नहीं है । केवल हनुमान जी का स्मरण करने से सभी सुख प्राप्त हो जाते हैं ।

अब यहाँ एक प्रश्न उठता है कि क्या बाकी सभी देवता का नाम लेने से हनुमान जी की कृपा नहीं होगी ? क्या बाकी सभी देवता हनुमान जी से काम हैं ?

नहीं । यहाँ हनुमान जी के नाम के स्थान आप जिस भी देवी देवता को मानते हैं वो नाम रख सकते हैं । कोई देवी – देवता हम मनुष्यों की तरह नहीं हैं कि आप उनकी जगह किसी और का नाम लोगे तो वे रुष्ट हो जायेंगे । सब एक ही हैं ।

पंक्ति 36 :

संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥

अर्थ: सभी संकट और सभी पीड़ा का अंत वीर हनुमान जी का ध्यान लगाते ही हो जाती हैं ।

यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि औषधि के साथ ध्यान लगाना है . औषधि छोड़कर नहीं . आप जो भी औषधि ले रहे हैं अपने रोग के लिए या पीड़ा के लिए, वे सब लें और साथ में हनुमान जी का भी नाम जपते रहें ।

संसार में जितने भी संकट हैं सब मानसिक हैं और मानसिक बल बढ़ेगा तो संकट छोटे लगने लगेंगे । मानसिक बल बढ़ाने के लिए हनुमान चालीसा का ध्यान बहुत है ।

पंक्ति 37 :

जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करहु गुरुदेव की नाईं ॥

अर्थ: इन्द्रियों के स्वामी हनुमान जी कि जय हो । हे हनुमान जी ! आप मुझ पर गुरु की भांति कृपा करें ।

हनुमान जी ब्रह्मचारी हैं और ब्रह्मचारी होना कोई सरल बात नहीं है । केवल जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर रखा है वही ब्रह्मचारी हो सकता है । अब आपके मन में एक प्रश्न आएगा कि हम तो विवाहित हैं तो क्या हम ब्रह्मचारी हो सकते हैं ? क्या राम जी ब्रह्मचारी थे ?

उत्तर है कि विवाह के बाद भी हम ब्रह्मचारी हो सकते हैं । बस विवाह के बाद हमें अपनी पत्नी के अलावा सभी स्त्रियों को माता और बहन के रूप में ही देखना है । तो राम जी भी ब्रह्मचारी थे और आप भी विवाह के बाद ब्रह्मचारी रह सकते हैं । 

अब दूसरा प्रश्न है कि गुरु के भांति कृपा ही क्यों करें हनुमान जी हमारे उप्पर ? माता के भांति क्यों नहीं या पिता के भांति क्यों नहीं ?

इसका उत्तर यह है कि केवल गुरु ही है जो शिष्य से कुछ अपेक्षा नहीं रखता । गुरु अपने शिष्य को अपना समस्त ज्ञान दे देता है और उसे संसार में भेज देता है एक सुखमय जीवन जीने के लिए । गुरु को अपने शिष्य से ना ही अर्थ की कामना होती है और ना ही किसी पद – प्रतिष्ठा की और ना ही उसे अपने शिष्य से कोई सम्मान की लालसा होती है । 

पंक्ति 38 :

जो सत बार पाठ कर कोई । छूटहि बंदि महा सुख होई ॥

अर्थ : जो 100 बार हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसके सभी दुखों का अंत हो जाएगा और सुख की प्राप्ति होगी ।

इस पंक्ति का अर्थ यह है कि हनुमान चालीसा की महिमा बहुत है । सुख और दुःख केवल मानसिक स्थिति है । हनुमान चालीसा अर्थ के साथ पाठ करने से मानसिक बल बढ़ाती है तो स्वतः ही जीवन के सभी दुःख छोटे लगने लगते हैं ।

पंक्ति 39 :

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा । होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥

अर्थ : जो भी हनुमान चालीसा का पाठ करता है उसकी सभी इच्छाओं की पूर्ती हो जाती है ।

सत्य तो यह है कि जो हनुमान जी भक्ति में लीन हो गया उसकी फिर कुछ इच्छा शेष रही नहीं जाती ।

पंक्ति 40 :

तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय मह डेरा ॥

अर्थ : तुलसीदास सदा ही राम जी के दास हैं । आप हे हनुमान जी ! मेरे ह्रदय में निवास करिये ।

अब यहाँ कुछ साधकों का प्रश्न होता है कि क्या हम तुलसीदास के स्थान पर अपना नाम रख सकते हैं ?

इसका उत्तर बहुत सरल है । तुलसीदास का नाम इन पंक्तियों से हटाना ही क्यों है ? तुलसीदास जी के साथ आप अपना नाम भी जोड़ दें क्यों तुलसीदास जी भी तो राम जी के दास हैं ।

इस पंक्ति को कैसे पढ़ना है मैं बताता हूँ । जैसे मेरा नाम अमन है तो मैं इस पंक्ति को ऐसे पढ़ता हूँ –

तुलसीदास एवं अमन सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय मह डेरा ॥

॥ दोहा ॥

पवन तनय संकट हरन,
मंगल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित,
हृदय बसहु सुर भूप ॥

अर्थ : हे पवन पुत्र ! संकटों के हरने वाले, मंगल के रूप । राम, लक्ष्मण और सीता सहित आप मेरे ह्रदय में निवास करें देवताओं के राजा ।

इन पंक्तियों में सुर का अर्थ है देवता और भूप का अर्थ है राजा ।

यहाँ हनुमान चालीसा अर्थ सहित पूर्ण हुई । यहाँ तक पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद ।

 

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